हर 46सेकंड में एक युवा, 15 से 29 साल के बीच, आत्महत्या कर रहे हैं ऐसा सुना। 15 से 29 साल का मतलब 1991 से 2005 के बीच पैदा हुए बच्चो में ये रोग (मै इसे रोग ही कहूंगी)अधिक देखने में आ रहा है।
हम इसमें किसको जिम्मेदार ठहराए? हम इसके उपाय कंहा ढूंढे? हमने कान्हा गलती कर दी कि युवा संसार में बहुत ऊंचाइयों पर पहुंचकर भी अपने अंतर को नहीं संभाल पा रहे है और अपना संतुलन खो बैठते हैं।
कन्ही प्री स्कूल शिक्षण पद्धतियां तो इसकी जिम्मेदार नहीं।
मै १९८४ से बच्चो कि शिक्षा से जुड़ी हुई हूं और स्वयं के बचपन के अनुभव को भी जोड़ लू तो लगभग साठ सालों से बच्चो के साथ जुड़ी हुए हूं।
१९९२ -९३ तक प्री स्कूल्स में बहुत सहज सरल पढ़ाई होती थी। उसके बाद शिक्षण पद्धतियों में जो इनोवेशन और परीक्षण होने लगे वो आज तक नहीं रुके। सहज शिक्षा को क्लिष्ट बनाते गए। जिसे शिक्षण में विज्ञान को जोड़ना कह सकते है।
जो समय बच्चे के अंतर मन को सींचने का था उसे हमने बाहरिय दुनिया के साथ अंत क्रिया करने में लगा दिया। यानि कि हमने पोधे की शाखाओं को बढ़ाने में ध्यान दिया उसकी जड़ों को सींचना भूल गए। ज्ञानेंद्रियों के विकास पर ज्यादा ध्यान दिया गया। संज्ञानात्मक विकास की बात की गई परन्तु वह मस्तिषक विकास तक ही सीमित रह जाता है , कुशल शिक्षकों के अभाव में।
अभी भी तीन एच की ही बात हो रही है। हेड, हैंड और हार्ट।
हम ज्ञानेंद्रियों को मस्तिषक तक ही जोड़ते है उनकी संवेदनाओं को मन, विवेक व आत्मा तक पहुंचाने का कार्य नहीं करते।
मन, विवेक और आत्मा आंतरिक संसार का निर्माण करती है। उन्हें संवारने के लिए कोई उचित मात्रा में कार्य नहीं किया गया।
प्रार्थना, भजन, देश भक्ति गीत, आत्मभिव्यक्ती गीत, सुविचार इत्यादि को की में, विवेक और आत्मा को पोषित करते है। जो आत्मा की शक्ति, ऊर्जा को गहराई तक जाकर बढ़ाते है। उन्हें कभी जगह नहीं रह गई। प्रार्थना सभा की जगह सर्किल टाइम ने ले ली जिसमें कुछ उथले से क्रिया कलाप कराए जाते हैं।
बहुत से स्कूलों में तो सप्ताह में एक बार ही प्रार्थना सभा होती है।वो भी अंग्रेजी मे।
न्यूटन ने सेब गिरते देखा, देखा आंखों से ही था परन्तु नीचे ही क्यों गिरा की समझ अंदर से ही मिली थी। जो देखा गया वो सिर्फ मस्तिषक तक ही नहीं गया वोआत्मा तक पहुंचा। आत्मा ने विवेक/बुद्धि को निर्देश दिया, बुद्धि ने मन को, मन ने कर्मेंद्रियो को फिर गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत निकल कर आया। फिर तो किसी भी संवेदना को आत्मा तक पहुंचाने के न्यूरल पाथवेज विकसित किए जाने चाहिए
ज्ञानेन्द्रिया पांच, मन दो, बुद्धि/विवेक एक और आत्मा शून्य होती है। परन्तु ज्ञानेन्द्रियो से बड़ा मन, मन से बड़ी बुद्धि और बुद्धि से बड़ी आत्मा होती है।
5 < 2 < 1< 0
हम बच्चो की सबसे बड़ी शक्ति को पोषित करने केलिए सबसे कम समय देते है। कंही कनहि तो भगवान भरोसे है छोड़ देते है। बच्चो को सिर्फ बाहृय संसार से अंत क्रिया करना सिखाते रहते है। स्वयं में विश्वास करने के लिए उसके पास कुछ रह ही नहीं जाता।
बच्चे को जीवन के कठिन रास्तों पर चलने के लिए साहस आत्मा की शक्ति, विवेक की शक्ति, मन की शक्ति से आता है।
आओ कुछ विचार करे?
बालक ध्रुव और प्रहलाद ने बचपन में ही आत्मा को पोषित कर परमात्मा की शक्तियों को प्राप्त कर लिया था। उन्हें संसार भी मिला और परमात्मा भी। आज के बच्चे संसार पाकर भी उसे संभाल नहीं पाते है। आंतरिक शक्ति की कमी के कारण।
आने वाली पीढियों को बचाएं, कुछ करे, क्या करें?
मेरी ये आवाज मुझसे बाहर कितनी दूर जाएगी नहीं जानती परन्तु ईश्वर के बच्चों के लिए आवाज उठाने का सुकून लेकर अवश्य जी सकूंगी।
कन्ही प्री स्कूल शिक्षण पद्धतियां तो इसकी जिम्मेदार नहीं।
मै १९८४ से बच्चो कि शिक्षा से जुड़ी हुई हूं और स्वयं के बचपन के अनुभव को भी जोड़ लू तो लगभग साठ सालों से बच्चो के साथ जुड़ी हुए हूं।
१९९२ -९३ तक प्री स्कूल्स में बहुत सहज सरल पढ़ाई होती थी। उसके बाद शिक्षण पद्धतियों में जो इनोवेशन और परीक्षण होने लगे वो आज तक नहीं रुके। सहज शिक्षा को क्लिष्ट बनाते गए। जिसे शिक्षण में विज्ञान को जोड़ना कह सकते है।
जो समय बच्चे के अंतर मन को सींचने का था उसे हमने बाहरिय दुनिया के साथ अंत क्रिया करने में लगा दिया। यानि कि हमने पोधे की शाखाओं को बढ़ाने में ध्यान दिया उसकी जड़ों को सींचना भूल गए। ज्ञानेंद्रियों के विकास पर ज्यादा ध्यान दिया गया। संज्ञानात्मक विकास की बात की गई परन्तु वह मस्तिषक विकास तक ही सीमित रह जाता है , कुशल शिक्षकों के अभाव में।
अभी भी तीन एच की ही बात हो रही है। हेड, हैंड और हार्ट।
हम ज्ञानेंद्रियों को मस्तिषक तक ही जोड़ते है उनकी संवेदनाओं को मन, विवेक व आत्मा तक पहुंचाने का कार्य नहीं करते।
मन, विवेक और आत्मा आंतरिक संसार का निर्माण करती है। उन्हें संवारने के लिए कोई उचित मात्रा में कार्य नहीं किया गया।
प्रार्थना, भजन, देश भक्ति गीत, आत्मभिव्यक्ती गीत, सुविचार इत्यादि को की में, विवेक और आत्मा को पोषित करते है। जो आत्मा की शक्ति, ऊर्जा को गहराई तक जाकर बढ़ाते है। उन्हें कभी जगह नहीं रह गई। प्रार्थना सभा की जगह सर्किल टाइम ने ले ली जिसमें कुछ उथले से क्रिया कलाप कराए जाते हैं।
बहुत से स्कूलों में तो सप्ताह में एक बार ही प्रार्थना सभा होती है।वो भी अंग्रेजी मे।
न्यूटन ने सेब गिरते देखा, देखा आंखों से ही था परन्तु नीचे ही क्यों गिरा की समझ अंदर से ही मिली थी। जो देखा गया वो सिर्फ मस्तिषक तक ही नहीं गया वोआत्मा तक पहुंचा। आत्मा ने विवेक/बुद्धि को निर्देश दिया, बुद्धि ने मन को, मन ने कर्मेंद्रियो को फिर गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत निकल कर आया। फिर तो किसी भी संवेदना को आत्मा तक पहुंचाने के न्यूरल पाथवेज विकसित किए जाने चाहिए
ज्ञानेन्द्रिया पांच, मन दो, बुद्धि/विवेक एक और आत्मा शून्य होती है। परन्तु ज्ञानेन्द्रियो से बड़ा मन, मन से बड़ी बुद्धि और बुद्धि से बड़ी आत्मा होती है।
5 < 2 < 1< 0
हम बच्चो की सबसे बड़ी शक्ति को पोषित करने केलिए सबसे कम समय देते है। कंही कनहि तो भगवान भरोसे है छोड़ देते है। बच्चो को सिर्फ बाहृय संसार से अंत क्रिया करना सिखाते रहते है। स्वयं में विश्वास करने के लिए उसके पास कुछ रह ही नहीं जाता।
बच्चे को जीवन के कठिन रास्तों पर चलने के लिए साहस आत्मा की शक्ति, विवेक की शक्ति, मन की शक्ति से आता है।
आओ कुछ विचार करे?
बालक ध्रुव और प्रहलाद ने बचपन में ही आत्मा को पोषित कर परमात्मा की शक्तियों को प्राप्त कर लिया था। उन्हें संसार भी मिला और परमात्मा भी। आज के बच्चे संसार पाकर भी उसे संभाल नहीं पाते है। आंतरिक शक्ति की कमी के कारण।
आने वाली पीढियों को बचाएं, कुछ करे, क्या करें?
मेरी ये आवाज मुझसे बाहर कितनी दूर जाएगी नहीं जानती परन्तु ईश्वर के बच्चों के लिए आवाज उठाने का सुकून लेकर अवश्य जी सकूंगी।
Look beyond imperfections
Be 'PRASANG'Be JOYOUS
#nochildleftout# nochildleftbehind
#imbibevalues#buildcharachter# buildnation