Tuesday, March 25, 2025

विचार करें बच्चा कहां कहां कहां से सीखता है अर्थात ज्ञान प्राप्ति के स्त्रोत

 




प्रणाम,
आज का प्रसंग,
हर बार की तरह कल शिक्षक दिवस धूम धाम से मनाया गया। किस बात की धूम थी, किस बात का उत्सव था। मैं स्वयं एक शिक्षिका हूं साथ ही जीवन पर्यंत विद्यार्थी भी। शिक्षिका के रूप में मैंने कितने विद्यार्थियों को ज्ञान की अलख जगाने में मदद की होगी नही जानती परंतु विद्यार्थी होने के नाते बता सकती हूं कि आज जो मैं हूं उसमे मेरे शिक्षकों का योगदान सिर्फ एक चौथाई है। शायद सभी के जीवन में शिक्षक का योगदान एक चौथाई ही होता है।विचार करें बच्चा कहां कहां कहां से सीखता है अर्थात ज्ञान प्राप्ति के स्त्रोत
1.शिष्य ज्ञान का एक चौथाई भाग आचार्य से पाता है।
2.दूसरा चौथाई अपनी बुद्धि , समझ बूझ, चिंतन स्वाध्याय से।
3.तीसरा चौथाई अपने सहपाठियों से प्राप्त करता है, उनकी समझ से भी उसे लाभ होता है।
4.अंतिम चौथाई भाग वह अनुभव से प्राप्त करता है।
शिक्षक कितना भी ज्ञानी हो यदि शिष्य में संयम और अनुशासन नही हो तो शिक्षक द्वारा दी गई ज्ञान ज्योति शिष्य में प्रजवल्लित नही होती है।
शिक्षक आज भी वैसे ही है जैसे एकलव्य का अंगूठा गुरु दक्षिणा में ले लिया गया था। कारण कुछ भी रहे हो।
2005 में गुरु द्रोणाचार्य अर्जुन संवाद मेरी लेखनी से प्रवाहित हुआ था, समय निकाल कर पढ़े।
*'द्रोणाचार्य अर्जुन संवाद'*
द्रोणाचार्यः वत्स समय हुआ पूरा ज्ञान की अलख जगा दी है, हमने।अब समय आ गया है इसे चहुँ ओर पहुँचाने का।
अर्जुनः गुरुदेव! हुआ मैं कृतार्थ
प्रवेश किया था ज्ञानार्थ,
प्रस्थान करूँगा सेवार्थ।
द्रोणाचार्य: यही आस मैं करता हूँ तुमसे,बाधा स़े ना घबराना समझ़े।
अर्जुनः बाधा रुपी फन को कुचलने के फन आपने सिखाए है। घबराने जैसा कोई फन अपने मुझे कहां सिखाया है। गुरुदेव, चाहता हूं अर्ज कुछ करना यदि आज्ञा हो।
द्रोणाचार्य: हां हां वत्स बोलो, आज्ञा लेने की अब बात कहां। अब तो तुम मेरे बराबर हो खड़े।
अर्जुन: लगाम ना जाने कितनो की आपके हाथ होती है।
कहां किसे ढील देनी है, कहां किसे खींचना है, आप कैसे जान जाते है?
द्रोणाचार्य: वत्स!सब कुछ लिखा होता है, शिष्य की कद काठी, भाव भंगिमा में। वो स्वयं ही तो लगाम अपनी चलाते हैं। जो रुक जाए उसकी लगाम ढीली व जो बढ़ता रहे उसकी हमेशा रहे तनी।
अर्जुन: बड़प्पन है यह आपका गुरुदेव, मशाल लिए ज्ञान की ज्योति चहुं ओर फैलाते हो। ना जाने इक मशाल से कितनी अन्य और सुलगाते हो।
द्रोणाचार्य : कहां पुत्र कहां, मैंने कहां सुलगाई अन्य कोई मशाल। मै तो रहा खड़ा सिर्फ थाम के इक, चाह थी जिसमे सुलग गई स्वयं वो सूखी पत्ती हर इक, हर गीली पत्ती ने धूम के साथ दिया आभास सुलगती हुई चिंगारी का।
अर्जुन: महान! गुरुदेव आप महान हैं। चितेरे ऐसे हैं जो कितनी बारीकियों से तराशते है हम जैसे कच्चे पत्थरों को। स्वयं कहीं हमारी गर्द में ही छिपे रह जाते हैं।
द्रोणाचार्य: कहां पुत्र कहां?
कहां तराशा है हमने किसी को, आरोपित किया है सिर्फ स्वयं की अभिलाषा को। जो हम ना बन सके थे कभी, वही तुम सब में देखने का प्रयास किया अभी।
अर्जुन : स्वयं नेपथ्य में रहकर हमे मंच पर ले जाते हो। स्वयं सारथी बन पीछे रह जाते हो। रखते हो आगे सदा अपने अश्वों ही को। कितना धैर्यमय विवेक हर समय दिखाते हो।
द्रोणाचार्य: ऐसा मत कहो वत्स, मत कहो। मुझ में कहां इतनी हिम्मत की सामना कर सकूं किसी का। जानते हो तुम्हें अपनी ढाल बनाकर इस्तेमाल करने का है ये इक तरीका।
अर्जुन: गुरुदेव! आपकी इन ऊंचाइयों को छू पाना मानता हूं असंभव मै। अपने कौशल को हस्तांतरित कर कितने वंशज बनाते है आप। तर्पण कर माता पिता के ऋणों से उऋण हो जाते है हम। परन्तु आपके ऋणों से उऋण होना असम्भव समझता हूं मै। कदम दर कदम हमे मूल्यों सहित कौशल दिए है।
द्रोणाचार्य: अर्जुन, दो मुट्ठी चावल गुरु दक्षिणा काफी होगी उऋण होने को। जाओ वत्स, जाओ। मशाल थमा दी है तुम्हारे हाथ। ज्ञान की अलख जगाओ, ज्ञान की अलख जगाओ।
अर्जुन: धन्य हैं गुरुदेव आप धन्य हैं। आपकी महानता के आगे आज में नतमस्तक हूं।
सेवार्थ प्रस्थान।
रेणु वशिष्ठ
मेरी डायरी से, 27.08.2005
शिक्षकों को आत्मदर्शन करने की, सत्य की अलख जगाने की जिम्मेदारी लेने की आवश्यकता है। विश्वगुरु भारत आपकी कक्षा में है। सूर्य बन सभी को प्रकाशित करते रहें।
सत्यमेव जयते
श्रमेव जयते
प्रसंग प्रणाम से प्रणव तक सत्य की विजय यात्रा में भाग लें।
Look beyond imperfections
Be 'PRASANG' Be Joyous
रेणु वशिष्ठ
मेरी काया मेरी वेधशाला से
6.9.2024
विचार व्यक्तिगत हैं किसी प्रकार के तर्क वितर्क के लिए बाध्य नहीं है।

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